अपने एक मित्र के पास जाते समय मुझे एक स्लम (slum) से होकर गुजरना पड़ता है। इसके बीच से गुजरने वाली पतली सड़क कूड़े-कचरे के अम्बार के कारण और भी पतली हो गयी है। इसी सड़क के दोनों किनारे आपको औरतें मिट्टी के चूल्हों पर रोटी सेंकते, तो कभी बच्चों को नहलाते मिल जाएँगी। दोनों किनारों पर बने बेतरतीब छोटे-छोटे घर इनके जीवन की समूची कहानी बयान करते हैं। दिन में ये घर खाली डिब्बों की तरह धन्धनाते हैं, क्योंकि मर्द जहाँ रिक्शा चलाने बाहर निकले रहते हैं, वहीं औरतें दूसरों के घरों में कम करने गयी होती हैं। इन घरों में बच्चों के हाथों में पेन और पेपर की जगह कूड़ों में से निकाले हुए प्लास्टिक के सामान ज्यादा दिखाई देते हैं। इनकी ये स्थिति देखकर उन तमाम सरकारी दावों का खोखलापन उजागर होने लगता है, जो इनकी गरीबी दूर कर इन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल करने की बात करते हैं।
इन नारकीय परिस्थितियों में जीने के बावजूद मैंने उनके चेहरों पर असंतोष के वो भाव नहीं देखे हैं, जो मुझे अक्सर उपरिवर्ग के उन चेहरों पर दीखता है, जो दिनरात ज्यादा से ज्यादा सफलता अर्जित करने की होड़ में लगे हुए हैं। शाम को इन झुग्गियों से होकर गुजरते समय टीवी पर अक्सर अमिताभ बच्चन की फिल्मों के सीन दिख जाते हैं, तो उनके सामने खाट पर निश्चिन्तता के साथ रोटी का निवाला मुंह में डालते लोग। इनकी निश्चिन्तता और सुकून देखकर मुझे शक होने लगता है किअसली गरीब कौन है? -ये लोग या सभी कुछ हासिल कर लेने कि अंधी दौड़ में शामिल हमलोग???
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